Monday 1 July 2013

मैं भी ईश्वर ... तू भी ईश्वर



मैं भी ईश्वर ... तू भी ईश्वर
फिर मैं ..... मैं क्यू ?
और तू .... तू क्यू ?

क्या है जो मुझे तुमसे दूर करता है?
क्या है जो तुम्हे मुझसे दूर रखता है?

कौन जान पाया है?
कौन जान पायेगा?
किसने ये बनाया है?

मैं जानता हुं के मैं कुछ नही जानता
मैं कभी जानता हुं के मैं कुछ कुछ हुं जानता
मैं तभी जानता हुं के मैं सब कुछ नही जानता

क्या मैं जानना चाहता हुं सब कुछ  ..... क्या है ये सब कुछ?

कौन जान पाया है?
कौन जान पायेगा?

ये वो जान पाता है ....
जो पहले ये जान लेता है के
"मैं जानता हुं के मैं कुछ नही जानता"

ऐसे भी  है .... जो सब कुछ है जानते
क्या सचमुच वे सब कुछ है जानते?
या वे जानते नही के "वे नही जानते"?

उन्हे कौन बतायेगा के  "वे नही जानते के वे क्या जानते है"

फिर कैसे कहे ...किससे कहे ... कौन कहे
के सचमे ... जो जानते है
"वे नही जानते के वे क्या जानते है"

कुछ ना जानना भी कितना अच्छा था
सब किस्मत का खेल था
..... नसीबोका मेल था

कुछ जान लिया .... फिर मैं जान गया
के ये मेराही खेल था ... मेरेही कर्मोका मेल था

मेरे कर्म मेरे साथ है ... पर क्या
मेरे कर्म मेरे हाथ है?

मेरे कर्म उनके हाथ है
जिनके हाथ मेरे साथ है

फिर कैसे कहे के .... 
जो फल मुझे मिला ...
उसमे कितना मेरा है
और कितना उनका  ...
जिन्होने अपने कर्मोको
मेरे हाथमे थोप दिया?

मै जानकर अंजान बन रहा हुं
मै देखकर अनदेखा कर रहा हुं
मै सुनकर अनसुना कर रहा हुं

तूनेही तो कहा था

बंद आंखसे देख तमाशा दुनियाका


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